Issue 65 – चार गांवों में हुआ वृक्षारोपण उत्सव: “एक पेड़ पूर्वजों के नाम पर”


अगस्त के महीने में बरझाई वन श्रृंखला के पास स्थित सालखेतिया, बरझाई, पांजरिया और सोबलियापुरा गांवों के लोगों ने अलग-अलग दिन बीज बोने और पेड़ लगाने का उत्सव मनाया । हाथों में पौधे और बीज लिए, गीत और भजन गाते और ढोल बजाते हुए,वे बरझाई घाट के वनों में पहुंचे । ये सारे गांववाले समाज प्रगति सहयोग (एसपीएस) द्वारा “एक पेड़ पूर्वजों के नाम पर” के नारे के साथ आयोजित एक वृक्षारोपण अभियान में भाग ले रहे थे, जिसके दौरान उन्होंने बरझाई वन श्रृंखला के विभिन्न स्थानों में – फूटा नाका, सिपाई खोदरा, पीपल कुंडिया, गोला गौठन और तीनदुगड़ी, व सालखेतिया के पास के संरक्षित वन क्षेत्रों में – 300 से अधिक पौधे और लगभग 100 किलो बीज लगाए । ये बीज क़िस्म-क़िस्म के देशी फलों के थे, जैसे सीताफल, रामफल, महुआ, जामुन, टेमरू, इमली, चारोली (कडप्पा बादाम), आंवला, बोर, बेहड़ा । लोगों ने सामूहिक रूप से पौधों और वनों की रक्षा करने का संकल्प भी लिया ।

महिलाएं पौधे के साथ भजन गाते हुए

ढोल और भजन के साथ महिलाये

लगातार दूसरे वर्ष आयोजित वृक्षारोपण कार्यक्रम की योजना बरझाई क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों से हो रही “बंदरों के ख़तरे”से जूझने के लिए बनाई गई थी। बड़े पैमाने पर वनों की कटाई, लकड़ी के व्यापार और वनों में निरंतर मानव अतिक्रमण (नई बस्तियों के साथ-साथ परिधि के गांवों द्वारा घर और खेत के भूखंडों का विस्तार) की वजह से वन के बंदरों और अन्य पशुओं के प्राकृतिक आवास का भारी नुकसान हुआ है । तो आश्चर्य नहीं कि बंदर तेज़ी से गांव की सड़कों और बस्तियों की ओर लपके आ रहे हैं – घरों की छतों के फाड़े जाने और भोजन चोरी किए जाने की रिपोर्टें आम हो चुकी हैं। धार्मिक या परोपकारी कारणों से घाट के भैरव मंदिर के आगंतुकों या सड़क चलते यात्रियों द्वारा दिए जाने वाले भोजन पर बंदरों को निर्भर रहने की आदत हो गई थी, और वे आक्रामक होने लगे थे, लोगों पर हमला करने और भोजन छीनने लगे थे। क्षेत्र में जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए गए, और सोचे-समझे स्थलों पर लोगों को चेतावनी देने वाले साइनबोर्ड लगाए गए कि वे बंदरों को खाना न  दें । लेकिन ग्रामीणों की करुणा ने एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी, जब वे पूछने लगे, “अगर हम उन्हें भोजन नहीं देंगे तो बंदर क्या खाएंगे?”वृक्षारोपण उत्सव को एक समाधान के रूप में देखा गया, ताकि जंगल में फल देने वाले पेड़ लगाने से और बढ़ते समय उनकी रक्षा करने से बंदरों को अपने प्राकृतिक आवास में रहते हुए खाने की चीज़ें मिल सकें ।

महिलाएं बीज दिखाते हुए

तरह तरह के बीज

विंध्याचल पर्वत श्रृंखला के हिस्से के रूप में, बरझाई घाट एक प्राकृतिक जलागम क्षेत्र है जो असंख्य धाराओं और नालों का पानी नर्मदा नदी में पहुंचाने के अलावा घाटी के लगभग सौ गांवों के लिए भूजल का पुनर्भरण भी करता है । इस तरह, यह न सिर्फ़ यहां की समृद्ध पारिस्थितिकी में योगदान करता है, बल्कि यहां रहने वालों के लिए एक आवश्यक जलस्रोत बना हुआ है । हाल के वर्षों में तेज़ी से वनों के काटे जाने, और इसके प्रति आदिवासी समुदायों सहित यहां के अन्य निवासियों की उदासीनता को देखते हुए, यह अभियान न केवल एसपीएस की एक महत्वपूर्ण पहल रही, बल्कि यह स्थानीय लोगों की भावनाओं से भी अनायास ही जुड़ गया । वनों के साथ लोग अपनी उस आजीविका को भी लुप्त होते देख रहे थे, जो लघु वन-उत्पादों पर आधारित है, यानी महुआ, तेंदू के पत्ते और खाद्य जंगली भोजन की अन्य क़िस्मों पर । और बंदरों का मुद्दा भी उनके संघर्ष का अटूट हिस्सा बना, क्योंकि यह ख़तरा मुख्य सड़क के किनारे कई गांवों तक पहुंच चुका था । फिर वन संरक्षण के प्रति ज़िम्मेदारी की एक मज़बूत भावना पैदा करने के प्रयास में, पूर्वजों के नाम पर पेड़ लगाने का विचार कोरकू, भिलाला और सिल्वी जैसे स्थानीय समुदायों की पारंपरिक प्रथा से अपनाया गया (हालांकि इन समुदायों से कई परिवार क्योंकि शहरों की ओर प्रवास करने लगे हैं, उनमें भी दिवंगत सदस्यों की याद में पेड़ लगाने की प्रथा कम होती जा रही थी) ।

गाँव के लोग बीज और पौधा लगाने जंगल की ओर जाते हुए

पूर्वजों के नाम पर पेड़ लगाने के ख़याल ने लोगों को आकर्षित किया, और उत्सव का माहौल बनता चला गया । गांववाले वन क्षेत्रों की ओर गाते, ढोल बजाते और नृत्य करते हुए गए । एक “त्रिवेणी”–नीम, पीपल और बरगद के पेड़ों की तिकड़ी – कूटा नाका में लगाई गई, जहां पुराना नीम का पेड़ सूख रहा था । पीपल कुड़िया में बच्चे नदी की ओर भागे और पानी में तैरने-कूदने लगे; वहीं तट पर बैठे एक बुज़ुर्ग बांसुरी पर मीठी धुनें सुनाने लगे, और सुकून और ख़ुशी के इस वातावरण में वृक्षारोपण गतिविधि आगे बढ़ती रही । तीन दुगड़ी में, जब कुछ प्रतिभागी सामूहिक फ़ोटो के लिए पोज़ कर रहे थे, कुछ अन्य लोग एक पहाड़ी पर साथ बैठे और ढोल और ताल बजाते हुए भजन गाने लगे । पूरे कार्यक्रम के दौरान, कुम्बाया[1] की महिलाओं द्वारा डिज़ाइन किए और बनाए गए बीज बैग गांववालों को उपहार में दिए गए । देशी बीजों और पौधों को इसलिए चुना गया कि इस क्षेत्र में प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली और विकसित होने वाली क़िस्में हर मौसम को सहते हुए जीवित रह पाने में अधिक सक्षम होती हैं । इसके अलावा, ये क़िस्में पारिस्थितिक रूप से सही विकल्प हैं क्योंकि ये न केवल मनुष्यों, पक्षियों, जानवरों, कीड़ों, बल्कि अपने आसपास के पौधों की अन्य प्रजातियों के लिए भी सहायक होती हैं।

महिलाएं कुम्बाया बेग के साथ

उत्सव की योजना बनाते समय आयोजकों ने एसपीएस कृषि कार्यक्रम के सुखराम बघेल जैसे विशेषज्ञों से परामर्श किया था । लोगों को विशिष्ट पौधों के लिए रोपण और बीज बोने के उचित तरीक़ों के बारे में मार्गदर्शन दिया गयाः प्रति छेद में केवल एक महुआ का बीज बोना क्योंकि बीज पहले से ही बड़े और अंकुरित थे, और इसलिए भी कि महुआ के पेड़ बड़े होते हैं; सीताफल, चारोली, आंवला जैसी क़िस्मों के लिए प्रत्येक छेद में दो से चार बीज बोना । ज़मीन में किए गए छिद्रों के बीच 5-10’ की दूरी रखी गई थी ताकि सभी पेड़ों को अपनी-अपनी जड़ों के ढांचे और फैलाव की ज़रूरतों के मुताबिक़ बढ़ने और पनपने के लिए पर्याप्त जगह मिले । इन नए रोपण वाले इलाकों में जानवरों की चराई की मनाही थी । हालांकि बीते साल वृक्षारोपण अभियान के दौरान भी “चराई की अनुमति नहीं”वाले बोर्ड लगाए गए थे, एसपीएस के रबिंद्र कुमार बारिक बताते हैं कि कैसे,जब आप उनसे बात करते हैं, तो लोग नियमों का पालन करने के लिए सहमत होते हैं, लेकिन वे हमेशा अपनी बात पर क़ायम नहीं रहते । इसलिए, वृक्षारोपण अभियान के लिए बाड़ और सीमाओं वाले बेहतर संरक्षित क्षेत्रों को चुना गया, और आयोजकों को इसबार पौधों से लगभग 100% उत्तरजीविता दर की उम्मीद है।

बीज और पौधा लगाते हुए

रोपण के दिनों में सभी स्थानों पर सबके लिए दाल बाटी, चावल, मिठाई, पीने के लिए ठंडा पानी और अपनी थाली धोने के लिए पानी उपलब्ध कराया गया । बस पीपल कुड़िया में साबूदाना खिचड़ी और केले बांटे गए, क्योंकि वह सोमवार था-वहां के अधिकांश लोगों के लिए उपवास का दिन ।

एक साथ खाना खाते हुए

वर्षों से निरंतर संवाद और चर्चाएं विभिन्न हितधारकों को बरझाई वन के हरितकरण के लिए साथ लाने में सक्षम रही हैं । गांवों की महिलाओं के स्वयं सहायता समूह (SHG) अपनी हिस्सेदारी सभाओं[2]के माध्यम से समर्थन देती रही  हैं । वन विभाग बहुत सहायक रहा, पूरे दिल से अभियान में शामिल रहा ।सलखेतिया में वृक्षारोपण स्थल उनकी संरक्षित, बाड़ सेबंधी सीमा के अंदर है, और विभाग ने ग्रामीणों को ग़ैर-लकड़ी की उपज के अधिकार देने का वादा किया है । वन रेंजर गजानंद बिरला, वन रक्षक राम निवाल कलम और उनकी टीम अभियान में सब समय सक्रिय रहे। पंचायत प्रमुख बरझाई की पंच रेखा बाई कर्मा और सोवल्यपुरा की पंच अन्नु बाईने अपना पूरा साथ दिया और कार्यवाही में शामिल हुईं । बागली के विधायक मुरली भंवरा ने भी चार में से एक कार्यक्रम में भाग लिया और वनों की रक्षा के अभियान का समर्थन करने का वादा किया । बागली प्रगति समिति (बीपीएस), पुंजापुरा प्रगति समिति (पीपीएस) और एसपीएस कम्युनिटी मीडिया[3]द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित इस कार्यक्रम का मार्गदर्शन पिंकी ब्रह्मा चौधरी ने किया, जबकि इसके कार्यान्वयन का नेतृत्व एसपीएस कम्युनिटी मीडिया के रबिंद्र कुमार बारिक ने किया । बीपीएस और पीपीएस प्रमुख जितेंद्र बिरलाऔर धर्मेंद्र राजावत और उनकी टीमों ने एसपीएस कम्युनिटी मीडिया टीम के साथ गांवों में निरंतर संवाद के साथ-साथ आयोजन में भी मदद की । एसपीएस के सचिव शोभित जैन और एसपीएस वाटरशेड कार्यक्रम के प्रमुख मुरली खराड़िया ने भी ग्रामीणों और वन विभाग दोनों के साथ बातचीत शुरू करने में मदद की, ताकि वन संरक्षण को विनियमित करने के साथ-साथ एक योजना तैयार की जा सके जिससे गांव के लोग लघु वन उपज का लाभ उठा सकें ।

बरझाई सरपंच रेखा कर्मा भाषण देते हुए

बागली विधायक मुरली भंवरा संकल्प लेते हुए

इस उत्सव ने बहुत लोगों को प्रेरित किया । इसकी सफलता को देखते हुए, यहां के वनों का भविष्य आशाजनक लग रहा है, क्योंकि प्रतिभागी अब अपने द्वारा लगाए गए पौधों और बीजों के साथ एक भावनात्मक और आध्यात्मिक बंधन महसूस करते हैं–एक ऐसा बंधन,जिसकी जड़ें स्थानीय संस्कृति में गहराई से उतरती हैं ।

SPS के कार्यकर्ता और गाँव के लोग

[1]कुम्बाया एक सामाजिक उद्यम है जो सिलाई की कला के माध्यम से ग़रीब महिलाओं और विकलांग लोगों का सशक्तिकरण करता है। बचे हुए कपड़े और अनबिके माल से बने वस्त्र, पैच्वर्क, घरेलू चादर-खोली व अन्य सामान के लिए कुम्बाया एक ब्रांड का नाम है। समाज प्रगति सहयोग द्वारा 1994 में शुरु की गई यह पहल अब एक निर्माता कंपनी है जहां कारीगर ही मालिक हैं।पिछले तीस सालों से कुम्बाया भुगतान किए गए काम के अधिकार के लिए लड़ने के साथ, डिज़ाइन-कला की ताक़त के ज़रिए महिलाओं की ज़िंदगियों में परिवर्तन लाने और उन्हें सशक्त बनाने का प्रयास करती आर ही है। 

[2]ये गांव के स्वयं सहायता समूह के सदस्यों द्वारा बुलाई गई मीटिंग होती हैं, जिनमें गांव से जुड़े मुद्दों पर चर्चा की जाती है, जैसे सबके लिए पीने का पानी उपलब्ध होना, राशन की दुकान, शौचालय, पेन्शन योजनाएं, प्रधान मंत्री आवास योजना, इत्यादि ।

[3]एसपीएस कम्युनिटी मीडिया एक ऑडियो-वीडियो प्रोडक्शन हाउस है, जो संस्था के विचारों, ​तरीक़ों व ​अनुभवों ​को लेकर स्थानीय समुदाए के लोगों के साथ मिलकर कलात्मक फ़िल्म और पॉडकास्ट बनाता है, और जिसकी प्रमुख टीम स्थानीय ​लोगों की है।  

लेखन: अविनाश देन्दुलुरी

स्त्रोत: रबिन्द्र कुमार बारिक

फोटोग्राफी: अभिषेक चौहान

अनुवाद (अंग्रेजी से हिंदी) : स्मृति नेवटिया

मार्गदर्शक: पिंकी ब्रह्मा चौधरी

पेज लेआउट: वर्षा रंसोरे 


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