Issue 67 -एन.पी.एम (NPM) खेती से हुई लागत में कमी और मिट्टी की उर्वरता में सुधार


ग़ैर-रासायनिक खेती को बढ़ावा देने की प्रक्रिया के तहत, समाज प्रगति सहयोग (एसपीएस) की कृषि कार्यक्रम टीम क्षेत्र की कृषि पद्धतियों का अध्ययन करती है। इसी के चलते महाराष्ट्र के अमरावती ज़िले में संस्था के धारणी तहसील कार्यस्थल में सर्वेक्षण किया जा रहा था। वहां लाकटू गांव में घर-घर सर्वे के दौरान कृषि कार्यकर्त्ता पंकज सावलकर की मुलाकात कुसुमबाई से हुई। पंकज ने उनके खेती के तरीक़ों के बारे में जाननाचाहा।  

कृषि कार्यक्रम के कार्यकर्ता कुसुमबाई की खेती के बारे मे चर्चा करते हुए

कुसुमबाई ने बताया कि बिना रासायनिक दवाई और खाद के अच्छी फ़सल नहीं होती; जितना रासायनिक दवाओं पर खर्च करो उतना ज़्यादा उत्पादन होता है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि फ़सलों में कीड़ों का प्रकोप हर साल बढ़ता जा रहा है । उन्होंने अपना अनुभव साझा किया कि किस तरह कीड़ों से फ़सल बचाने के लिए महंगी से महंगी शक्तिशालीकीटनाशक दवाई लाकर खेत में छिड़काव करना पड़ रहा है । लेकिन इन दवाईयों का कीड़ों पर कुछ ख़ास असर नहीं होता । बस खेती पर लागत हर साल बढ़ती जा रही है । खरीफ़ और रबी, सीज़न की दोनों फ़सलों में, वे अपनी चार एकड़ ज़मीन में रासायनिक कीटनाशकों और खाद पर लगभग 12 से 15 हज़ार रुपये खर्च करती हैं । उसके अलावा परिवार के सभी सदस्यों द्वारा खेतों में श्रम की और बीजों की भी लागत होती है । अगर किसी साल फ़सल ख़राब हो गई तो खेती में लगा खर्च भी नहीं निकल पाता, जिस वजह से वे काफ़ी चिंतित रहती हैं । 

फसल में नाडेप खाद डालते हुए

पंकज ने कुसुमबाई को समझाया कि रासायनिक खाद और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से खेती का खर्चा तो बढ़ता ही है, साथ ही मिट्टी की उपजाऊ क्षमता कम होती जाती है, क्योंकि रासायनिक दवाई मिट्टी में जैविक पदार्थों को ख़त्म कर देती है जो उर्वरता के लिए आवश्यक हैं । और फिर ज़मीन धीरे-धीरे बंजर होने लगती है । और जहां तक कीटनाशकों की बात है, इनके इस्तेमाल से न सिर्फ़ पर्यावरण का नुकसान होता है, इनके दुष्प्रभाव हवा, पानी, पशु, पक्षियों के साथ-साथ मनुष्यों में भी देखने को मिल रहे हैं ।कीटनाशकों के ज़्यादा इस्तेमाल से हमें सांस की बीमारी, एलर्जी, त्वचा-रोग, न्यूरोलॉजिकल (तंत्रिका – संबंधी) बीमारियां और कैंसर जैसा भयानक रोग होने का ख़तरा बना रहता है ।

कुसुमबाई और उनके पति राम सिंग फसल मे जैविक दवाई डालने की तैयारी करते

फिर उसने बताया कि समाज प्रगति सहयोग संस्था “एन.पी.एम” यानी बिना रासायनिक दवा की खेती को बढ़ावा देती आई है, जिसमें खेती का खर्च बहुत कम होता है और जो लोगों के स्वास्थ्य के अलावा मिट्टी और पर्यावरण के लिए भी फ़ायदेमंद होता है । संस्था उनके गांव में हर महीने कृषि समूह की बैठक करेगी जिसमें खेती-बाड़ी से जुड़ी चर्चाएं होंगी – पंकज ने कहा आप उस बैठक में एक बार ज़रूर आएं । अगले महीने होने वाली बैठक में कुसुमबाई गईं । सभी लोगों को ग़ैर-कीटनाशक एन.पी.एम खेती की प्रक्रिया और इससे होने वाले फ़ायदों के बारे में समझाया गया ।साथ ही कृषि समूह और गांव में एसपीएस कम्युनिटी मीडिया[1] द्वारा बनाई गई एन.पी.एम खेती पर आधारित फ़िल्में भी दिखाई गईं । सारी जानकारी से प्रभावित होकर कुसुमबाई बेझिझक एन.पी.एम खेती कार्यक्रम से जुड़ने के लिए तैयार हो गईं।  

कृषि समूह की बैठक

गांव में मोबाईल सिनेमा स्क्रीनिंग

गांव मे मोबाईल सिनेमा स्क्रीनिंग देखते हुए

मिट्टी की उर्वरकता बढ़ाने वाली ग़ैर-कीटनाशक खेती की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कदमों में से एक है नाडेप[2]जैविक खाद विधि । गर्मी के दिनों में कुसुमबाई के खेत में पक्का नाडेप बनाने का काम शुरू किया गया l संस्था की तरफ़ से 1200 ईंट, 5 बैग सीमेंट और मिस्त्री के 1200 रुपये की मदद दी गई । सतह से ऊपर की ओर बनने वाले नाडेप के  मापदंड थे 12 फ़ुट लम्बाई, 5 फ़ुट चौड़ाई और 3 फ़ुट गहराई । कुसुमबाई ने बालू-रेती की व्यवस्था के साथ-साथ नाडेप निर्माण में श्रमदान भी किया।

पक्का नाडेप निर्माण कार्य

नाडेप का निर्माण कार्य पूरा होने के बाद पंकज ने कुसुमबाई को नाडेप भरने का तरीक़ा समझाया, कैसे  मक्का, लाल तुवर, सोयाबीन, गेहूं, चना की उनकी फ़सलों के सूखे अवशेष और उनके  खेत से निकलने वाले खरपतवार को परत दर परत नाडेप के अन्दर भरना होता है, साथ ही गोबर का घोल बनाकर फ़सल के अवशेषों पर छिड़काव करना होता है । नाडेप भर जाने के बाद उसके ऊपर मिट्टी और गोबर के घोल से लिपाई की जाती है। इसके बाद समय-समय पर नाडेप के ऊपर पानी का छिड़काव करना होता है ताकि अंदर नमी बनी रहे और जल्दी खाद बनकर तैयार हो जाए । कुसुमबाई अब साल में नाडेप से दो ट्राली खाद निकालकर खेत में डालती हैं l  साथ ही फ़सलों की अच्छी बढ़वार के लिए वे संजीवक[3]खाद बनाकर भी डालती हैं । फ़सलों में लगने वाले कीटों की रोकथाम के लिए वे घर पर जैविक दवाई “पांच पत्ती काढ़ा”[4] और “छाछ दवाई”[5] बनाती हैं । जब उन्हें “फ़ेरोमोनट्रैप”[6]से पता चलता है कि फ़सल में कीट आने वाले हैं तो वे मक्का, लाल तुवर, सोयाबीन, मिर्ची और सब्ज़ियों पर इन जैविक दवाईयों का छिड़काव करती हैं । कुसुमबाई हर साल खरीफ़, रबी और गर्मी के सीज़न में कई अलग-अलग तरह की सब्ज़ियां उगाती आई हैं, जैसे गोभी, बैंगन, भिन्डी, टमाटर, बल्लर, पालक । इन सब्ज़ियों को वे बाज़ार में जाकर बेचती हैं । पहले इन्हें कीड़ों से बचाने के लिए कुसुमबाई कोकीटनाशक दवाईयों पर हर साल 5-6,000 रुपए खर्च करने पड़ जाते थे । पर आज वे इन सारे रुपयों की बचत कर पा  रही हैं, साथ ही खेती में नाडेप और संजीवक खाद के कारण वे रासायनिक खाद पर लगने वाली राशि भी बचा रही हैं । कुल मिलाकर अब उन्हें कोई 9,000 रुपए की बचत हो जाती है । सोयाबीन, मक्का, लाल तुवर की फ़सलों के उत्पादन में भी धीरे-धीरे वृद्धि हो रही है, साथ ही उनके खेत की मिट्टी की उपजाऊ क्षमता भी बढ़ने लगी है । 

कुसुमबाई पक्का नाडेप की खाद दिखाते

संजीवक खाद

एसपीएस मेलघाट क्षेत्र में 2017 से एन.पी.एम खेती पर काम कर रही है, जिसमें कुल 1973 किसान जुड़े हैं । संस्था के अन्य कार्यक्षेत्रों के किसानों को मिलाकर अब तक कुल 16,998 किसान इस तरीक़े को अपनाकर बिना रासायनिक दवाई की खेती कर रहे हैं । कुसुमबाई भी इन्हीं में से एक किसान हैं, जो पिछले दो साल से एन.पी.एम तरीके से खेती कर रही हैं । इसका एक अच्छा नतीजा यह भी हुआ है कि आज वे अपने परिवार को बिना ज़हर का खाना उपलब्ध करा रही हैं ।

 [1] एस पी एस कम्युनिटी मीडिया एक ऑडियो-वीडियो प्रोडक्शन हाउस है, जो संस्था के विचारों, तरीक़ों व अनुभवों को लेकर स्थानीय समुदाए के लोगों के साथ मिलकर कलात्मक फ़िल्म और पॉडकास्ट बनाता है, और जिसकी प्रमुख टीम स्थानीय लोगों की है । 

[2] नाडेप (NADEP) विधि खाद बनाने की एक प्रक्रिया है जो खेतों की विभिन्न बची-खुची प्राकृतिक सामग्री का उपयोग करती है । “नाडेप” नारायण देवराव पंढरी पांडे के नाम का संक्षिप्त रूप है । ये वही किसान हैं जिन्होंने इस विधि का अविष्कार किया था । नारायण देवरावपंढरीपांडे को अब लोग प्यार से “नाडेप काका” कहते हैं ।  

[3] यह मिट्टी में असंख्य सूक्ष्म जीवाणुओं को बढ़ाता है, जो ज़मीन में उपलब्ध आवश्यक पोषक तत्वों को पौधों के लिए भोजन उपलब्ध कराने का काम भी करते हैं ।  इससे फ़सल की वृद्धि और मिट्टी की उर्वरक शक्ति बढती है ।

[4] ऐसे पेड़ की पत्तियां जिनपर कीड़े न लगते हों, उनको बारीक़ काटकर गोमूत्र और पानी डालकर 8 से 10 दिन तक गलाकर फिर उसे उबाला जाता है। फिर यह दवाई छिड़काव के लिए तैयार हो जाती है ।     

[5] छाछ दवाई बनाने के लिए छाछ में तांबे के धातु को तीन दिन तक रखकर जब छाछ हल्के हरे रंग की हो जाती है, तब इसका छिड़काव कर सकते हैं ।  

[6] फ़ेरोमोन ट्रैप में एक केप्सूल लगाया जाता है जिसमें मादा फुद्दी की गंध होती है, तो नर फुद्दे उस ट्रैप में आकर फंस जाते हैं । यह खेतों में लगने वाले कीटों का सूचक होता है ।

लेखन: इकबाल हुसैन

स्त्रोत: पंकज सावलकर

फोटोग्राफी: पंकज सावलकर

अनुवाद ( हिंदी से अंग्रेजी) : स्मृति नेवटिया

मार्गदर्शक: पिंकी ब्रह्मा चौधरी

पेज लेआउट: रोशनी चौहान


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