लाल मुरमी ज़मीन की पहाड़ियों के बीच बसा हुआ एक गांव है गुलझिरा, जो मध्य प्रदेश के खरगोन ज़िले की भगवानपुरा तहसील के अंतर्गत आता है । इस गांव में पांच फलिया (मुहल्ले) हैं । इन्हीं में से एक है बेड़ी फलिया, जो गांव से कुछ दूर पहाड़ी के ऊपरी हिस्से पर कुछ साल पहले बसाया गया था, और जहां भील व भिलाला आदिवासी समुदाय के 25 परिवार निवास करते हैं । यहां के ज़्यादातर किसान बारिश के मौसम में खरीफ़ की फ़सलें, मक्का एवं सोयाबीन, ही उगा पाते हैं – सिंचाई के लिए पानी की सुविधा न होने के कारण रबी की फ़सल नहीं बो पाते । दिवाली के बाद, अधिकांश निवासी आजीविका की तलाश में महाराष्ट्र और गुजरात के शहरों में निर्माण-स्थलों पर मजदूरों के रूप में काम करने के लिए पलायन करते हैं या गुजरात के पोरबंदर ज़िले में कृषि मजदूरी करने चले जाते हैं ।
खड़ी चढ़ाई में कुएं से पानी अपने घर ले जाती हुई महिलाएं
शुरुआत से ही बेड़ी फलिया के निवासियों को रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए पानी को लेकर काफ़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है, ख़ासकर गर्मियों में जब भूजल अपने सबसे निचले स्तर पर होता है । पहाड़ी पर बसा होने के कारण वहां कोई जल स्त्रोत नहीं है । महिलाएं रोज़ पहाड़ी से नीचे उतरकर एक किसान के खेत में लगे निजी बोरवेल से पानी भरती हैं, लेकिन पानी का जलस्तर कम होने के कारण मालिक पानी ऊपर खींचने के लिए बोरवेल की मोटर सिर्फ़ आधे घंटे के लिए ही चालू करता है । फिर बिजली न हो तो लोग कई बार पानी भर ही नहीं पाते हैं । इसके बाद उनका आख़िरी सहारा गांव के किसान ढेमा कनासे का कुआं ही रहता है, जहां अलग मुश्किलें पेश आती हैं । 35 फ़ीट गहरे कुएं से रस्सी खींचकर पानी-भरी बाल्टी निकालने में कड़ी मेहनत लगती है । न केवल पीने और घरेलू उपयोग के लिए, बल्कि घर के मवेशियों के लिए भी पर्याप्त पानी लाना पड़ता है । मुहल्ले के लोगों ने कई बार पानी की समस्या के बारे में गांव के सरपंच से शिकायत की, लेकिन उसने भी पानी की व्यवस्था ठीक नहीं करवाई ।
पहाड़ी पर बसा बेड़ी फलिया
समाज प्रगति सहयोग संस्था पिछले एक साल से इस गांव में जलागम विकास,[i] स्वयं सहायता समूह, एन.पी.एम खेती,[ii] और शुद्ध पीने के पानी को लेकर काम कर रही है । जब अप्रैल 2024 में संस्था के कार्यकर्ताओं ने गांव में मीटिंग रखी, तो उसमें बेड़ी फलिया के लोगों ने अपने यहां हो रही पीने के पानी की समस्या का मुद्दा उठाया । उन्होंने बताया कि जिस कुएं से वे पानी भरते हैं, वह अंदर से कच्चा है और खेत की सतह के बराबर होने के कारण बारिश के मौसम में आसपास का कूड़ा-कचरा बहकर उसमें जमा हो जाता है, जिससे उसका पानी बहुत दूषित रहता है । लेकिन इस कुएं के अलावा उनके पास नज़दीक कोई दूसरा पानी का स्त्रोत है भी नहीं, इसलिए मजबूरन उन्हें वही दूषित पानी पीना पड़ता है । आसपास के खेत की मिटटी (गाद) भी कुएं के अंदर बहने लगती है, जिससे भीतर की झीर से आने वाले जल का प्रवाह भी अटक जाता है, और फिर गर्मियों में, जब भूजल का इस्तेमाल अधिक होने लगता है, पानी का आवक बहुत कम रह जाता है । और तो और, कुएं के इर्द-गिर्द कोई सुरक्षा दीवार (पाल) न होने की वजह से उसमें लोगों या जानवरों के अंदर गिर जाने का ख़तरा बना रहता है । जब संस्था की टीम द्वारा जांच की गई तो कुएं के पानी में बैक्टीरिया पाए गए, जो आसपास की गंदगी के अंदर जाने के कारणवश हो रहा था । मुहल्ले के लोगों की इच्छा थी कि कुएं को अंदर से लेकर ऊपर ज़मीन तक गोल आकार में सीमेंट-कंक्रीट से पक्का बना दिया जाए, लेकिन आर्थिक स्थिति सही नहीं होने की वजह से वे ख़ुद यह काम नहीं कर पा रहे थे, और तभी संस्था से सहयोग मांग रहे थे ।
एस.पी.एस. कार्यकर्ता गांव के लोगों से कुएं की मरम्मत को लेकर चर्चा कर रहे हैं
संस्था के कार्यकर्ताओं ने कुएं को पक्का करने के लिए सीमेंट, गिट्टी, रेत और सरिया की व्यवस्था करने का आश्वासन दिया और काम करने के लिए लोगों से श्रमदान की मदद मांगी, जिसके लिए सभी राज़ी हो गए । कुएं का मालिक भी इस फ़ैसले से ख़ुश था । कुछ समय बाद कुआं पक्का करने का काम शुरू हुआ, जिसमें मुहल्ले से 15 लोग शामिल हुए । लेकिन एक सप्ताह काम करने के बाद उन्होंने श्रमदान करने से मना कर दिया। कहा कि वे मुफ़्त में काम नहीं करेंगे, उन्हें इस काम की मजदूरी चाहिए । इस मुद्दे को हल करने के लिए संस्था के कार्यकर्ताओं ने फिर से मुहल्ले के लोगों के साथ बैठक की, और श्रमदान का महत्व समझाया । समुदाय के साथ मिलकर संस्था जो भी काम करती है, उसमें सभी की भागीदारी सुनिश्चित करती है l योगदान नगद राशि, सामग्री या श्रम – किसी भी रूप में किया जा सकता है । इसके पीछे सोच यह है कि जब ग्रामीणों के साथ मिलकर गांव के विकास की योजना बनाई जाती है, तो उनमें सहभागिता की भावना जाग्रत होती है, और ज़रूरी होता है सभी को इस बात का एहसास हो कि वे जो काम कर रहे हैं, वह उनका अपना है । इस भावनात्मक जुड़ाव के कारण वे इसे और बेहतर बनाने में अपना पूरा योगदान देते हैं । साथ ही काम में कितना पैसा खर्च होना चाहिए, या कैसे कम पैसों में अच्छा काम किया जाए, इस बारे में सामूहिक स्तर पर सोच-विचार किया जाता है । समुदाय के सामने बात रखी गई कि यह कुआं किसी अकेले व्यक्ति के लिए पक्का नहीं कर रहे हैं, इससे पानी तो पूरे मुहल्ले के लोग लेंगे । दो दिन की लंबी चर्चा और कार्यकर्ताओं के प्रयासों के बाद आख़िरकार मुहल्ले के सारे लोग फिर से श्रमदान के लिए तैयार हो गए ।
कुएं को पक्का करने से पहले की स्थिति
कुएं में मरम्मत का काम शुरू
जून महीने में कुएं का काम पूरा हुआ, जिसमें 17 दिन लगे । संस्था ने रु. 1,21,463 की आर्थिक मदद की । कई सालों से पानी की समस्या झेल रहे बेड़ी फलिया के लोगों को अब पीने का साफ़ पानी मिलने लगा है। संस्था भविष्य में फ़ंड की व्यवस्था करके कुएं से पाइपलाइन बिछाकर मुहल्ले में ही एक पानी की टंकी लगाने की योजना बना रही है, ताकि लोगों को 24 घंटों घरों के पास ही पानी मिल सके । साथ ही मवेशियों के पीने के पानी के लिए भी एक खुली टंकी (ठेल) की व्यवस्था की जाएगी । इस प्रयास से न केवल बेड़ी फलिया के लोगों की पीने के पानी की समस्या हल हुई, बल्कि यह सामुदायिक श्रमदान और सहयोग की एक मिसाल भी बन गया है ।
कुएं का काम पूर्ण होने के बाद
मुहल्ले की महिलाएं नवनिर्मित कुएं से पानी ले रही हैं
यह संस्था के जलागम विकास काम का हिस्सा है । पिछले दस महीनों में भगवानपुरा कार्य-क्षेत्र में जलागम विकास के अंतर्गत कई निर्माण कार्य पूरे किए गए हैं, जिनमें शामिल हैं: चार स्टॉप डैम, एक चेक डैम का जीर्णोद्धार, एक खेत तालाब, दो गेबियन संरचनाएं,[3]26 बोल्डर चेक, एक कुएं का जीर्णोद्धार और 327 हेक्टेयर क्षेत्र में मेड़बंदी । इन कार्यों पर कुल रु. 1,87,78,000 की लागत आई और इससे 36,651 मानव दिवस का रोज़गार सृजित हुआ, जिसमें रु. 6,48,000 का योगदान लोगों ने श्रमदान के रूप में किया ।
[1] जलागम विकास में पानी के संचयन के लिए अलग-अलग प्रकार की संरचनाएं बनाई जाती हैं ।
[2] बिना रासायनिक दवा की खेती ।
[3]गेबियन संरचना चट्टानों से भरा एक तार बॉक्स होता है, जिसका उपयोग वाटरशेड विकास के अंतर्गत जल संरक्षण के हिस्से के रूप में धारा प्रवाह के
संरक्षण के लिए किया जाता है ।
लेखन: प्रदीप लेखवार
स्त्रोत: कीर्ति केल्दे, मंगलम बरनवाल
फ़ोटोग्राफ़ी: विपिन पाल, छगन डुडवे, संजू कनासे, रबिन्द्र कुमार बारिक
अनुवाद ( हिंदी से अंग्रेजी) : स्मृति नेवटिया
मार्गदर्शक: पिंकी ब्रह्मा चौधरी
पेज लेआउट: रोशनी चौहान